Remembering Lal Bahadur Shastri: आज हम उस महापुरुष को याद कर रहे हैं, जिनका कद तो छोटा था, पर व्यक्तित्व हिमालय से भी ऊँचा था। एक ऐसा नाम, जो भारतीय राजनीति के शब्दकोश में ईमानदारी, सादगी और अटूट राष्ट्रभक्ति का पर्याय बन गया – लाल बहादुर शास्त्री। उनकी जयंती केवल एक तारीख नहीं, बल्कि एक अवसर है उस दौर को याद करने का जब राजनीति सत्ता का खेल नहीं, बल्कि देश सेवा का एक पवित्र व्रत हुआ करती थी।
शास्त्री जी का जीवन किसी प्रेरणादायक पटकथा से कम नहीं। कल्पना कीजिए, बनारस के पास मुगलसराय के एक साधारण परिवार में जन्मे उस बालक की, जिसके पास नदी पार करने के लिए नाविक को देने के पैसे नहीं थे और वह अपनी किताबें सिर पर रखकर गंगा तैरकर स्कूल जाया करता था। यही दृढ़ संकल्प, यही अभावों में भी सिद्धांतों पर टिके रहने की कला उनके चरित्र का आधार बनी। उन्होंने अपनी जातिगत पहचान ‘वर्मा’ को त्यागकर ‘शास्त्री’ की उपाधि धारण की, जो यह दिखाता है कि वे व्यक्ति की पहचान उसके कर्म और ज्ञान से मानते थे, जन्म से नहीं।

स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान जितना प्रखर था, उतना ही शांत भी। वे स्वतंत्रता संग्राम प्रमुख किरदारों के सच्चे अनुयायी थे, जिन्होंने कभी पद का मोह नहीं किया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण शायद आज की पीढ़ी को अविश्वसनीय लगे। जब वे रेल मंत्री थे, तब तमिलनाडु में एक भीषण रेल दुर्घटना हुई। उसकी नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए शास्त्री जी ने तत्काल अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया। यह कोई राजनीतिक दबाव नहीं था, यह उनकी आत्मा की आवाज़ थी। आज के दौर में, जब जवाबदेही एक दुर्लभ गुण बन गया है, शास्त्री जी का यह कदम राजनीति में नैतिकता का एक ऐसा शिखर स्थापित करता है, जिसे छूने की कल्पना करना भी मुश्किल है।

प्रधानमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल केवल 18 महीनों का रहा, लेकिन उन छोटे से महीनों में उन्होंने देश पर एक अमिट छाप छोड़ी। 1965 का भारत-पाक युद्ध और उसी समय देश में भीषण अन्न संकट, जैसे एक साथ दोहरी चुनौती! उस संकट की घड़ी में उस ‘नन्हे’ से व्यक्ति के अंदर का ‘लौह पुरुष’ जागा। एक तरफ उन्होंने सेना को खुली छूट दी और दिल्ली के रामलीला मैदान से गरजते हुए कहा, “हम जिएंगे तो देश के लिए और मरेंगे तो देश के लिए।” तो दूसरी तरफ, उन्होंने देशवासियों से स्वाभिमान की अपील की।

“जय जवान, जय किसान”, यह केवल एक नारा नहीं था। यह उस युग की सबसे बड़ी ज़रूरत की पुकार थी। यह देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले जवान और देश का पेट भरने वाले किसान को एक ही सिंहासन पर बिठाने का एक पवित्र मंत्र था। उन्होंने अमेरिका से आने वाले घटिया गेहूं के बदले देश के आत्म-सम्मान को चुना। उन्होंने देशवासियों से हफ़्ते में एक दिन उपवास रखने की अपील की, और सबसे पहले इस नियम को अपने घर पर लागू किया। प्रधानमंत्री आवास में लॉन खुदवाकर उन्होंने खेती शुरू करवा दी। ऐसा नेतृत्व कहाँ मिलता है, जो संकट के समय जनता को आदेश नहीं, बल्कि उनका साझीदार बनने का आमंत्रण देता हो?

वे देश के प्रधानमंत्री थे, पर उनके बेटे के एडमिशन के लिए स्कूल का फॉर्म ख़रीदने को पैसे नहीं थे। उनकी पत्नी जब घर में एक कूलर लगवाने की बात करतीं, तो वे पूछते कि इस देश के कितने करोड़ लोगों के घर में कूलर है? वे उस पीढ़ी के नेता थे, जिनके लिए निजी जीवन और सार्वजनिक जीवन में कोई अंतर नहीं था। उनकी ईमानदारी किसी दिखावे की मोहताज नहीं थी, वह उनके हर साँस में बसती थी।

और फिर आता है 10 जनवरी, 1966 का वो मनहूस दिन। ताशकंद में पाकिस्तान के साथ युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद, उसी रात रहस्यमयी परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। एक प्रधानमंत्री, जो युद्ध में देश को विजय दिलाकर शांति का पैगाम लेकर गया था, उसका पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटकर वापस आया। उनके शरीर का नीला पड़ जाना, उनकी निजी डायरी का गायब हो जाना, और सबसे बड़ा सवाल – भारत के प्रधानमंत्री का विदेश में निधन होने के बावजूद उनका पोस्टमार्टम क्यों नहीं कराया गया? उनके परिवार के सदस्यों ने जो देखा और जो बताया, उसे देश ने क्यों नहीं सुना?

यह सवाल आज 59 साल बाद भी भारत के लोकतंत्र की छाती पर एक बोझ की तरह कायम है। शास्त्री जी ने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर दिया, हर पल देश के स्वाभिमान के लिए जिए। लेकिन क्या यह देश अपने उस महान सपूत की मृत्यु पर छाए रहस्य के बादलों को हटाने का अपना फ़र्ज़ निभा पाया?
उनकी जयंती पर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनकी सादगी, ईमानदारी और राष्ट्र-सर्वोपरि की भावना को अपने जीवन में उतारें। पर इसके साथ ही, एक कृतज्ञ राष्ट्र होने के नाते हमें यह सवाल भी पूछना होगा:
“”शास्त्री जी की मृत्यु स्वाभाविक थी या एक सुनियोजित षड्यंत्र? इस सवाल का जवाब जाने बिना क्या भारत का इतिहास कभी पूरा हो पाएगा?“

राणा अंशुमान सिंह यूनिफाइड भारत के एक उत्साही पत्रकार हैं, जो निष्पक्ष और प्रभावी ख़बरों के सन्दर्भ में जाने जाना पसंद करते हैं। वह सामाजिक मुद्दों, धार्मिक पर्यटन, पर्यावरण, महिलाओं के अधिकारों और राजनीति पर गहन शोध करना पसंद करते हैं। पत्रकारिता के साथ-साथ हिंदी-उर्दू में कविताएँ और ग़ज़लें लिखने के शौकीन राणा भारतीय संस्कृति और सामाजिक बदलाव के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।