प्रमुख बिंदु-
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई वीरों और वीरांगनाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी, लेकिन मातंगिनी हाजरा की कहानी अदम्य साहस और देशभक्ति की एक अनूठी मिसाल है। 72 साल की उम्र में, जब लोग आराम की जिंदगी जीने की सोचते हैं, मातंगिनी हाजरा ने तिरंगा थामकर ब्रिटिश हुकूमत को ललकारा और ‘वन्दे मातरम्’ के नारे के साथ अपनी जान न्योछावर कर दी।
बंगाल के टामलुक में जन्मी इस क्रांतिकारी महिला को ‘गांधी बूड़ि’ के नाम से जाना गया, क्योंकि वह महात्मा गांधी के अहिंसक आदर्शों से प्रेरित थीं, लेकिन जरूरत पड़ने पर उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन में हिस्सा लिया। इस स्वतंत्रता दिवस पर, आइए जानें मातंगिनी हाजरा की प्रेरणादायक कहानी, जिन्होंने अपनी शहादत से इतिहास में अमरता हासिल की।
18 साल की उम्र हो गईं विधवा
मातंगिनी हाजरा का जन्म 19 अक्टूबर 1870 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के होगला गांव में एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। गरीबी के कारण उनकी शिक्षा नहीं हो सकी, और मात्र 12 वर्ष की उम्र में उनकी शादी 62 वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से हो गई। 18 साल की उम्र में वह विधवा हो गईं, जिसके बाद उन्होंने अपना जीवन सामाजिक सेवा और देश की आजादी के लिए समर्पित कर दिया।
मातंगिनी ने कभी हार नहीं मानी और अपने गांव में गरीबों और जरूरतमंदों की मदद के लिए काम शुरू किया। उनकी जिंदगी में एक नया मोड़ तब आया जब वह महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित हुईं। गांधीजी की अहिंसा और स्वदेशी की शिक्षाओं ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में कूदने के लिए प्रेरित किया।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
मातंगिनी हाजरा 1930 के दशक में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ीं। 1932 में, जब एक स्वतंत्रता जुलूस उनके घर के पास से गुजरा, तो वह उसमें शामिल हो गईं। तामलुक के कृष्णगंज बाजार में आयोजित जनसभा में उन्होंने तन, मन, धन से स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने की शपथ ली। उन्होंने नमक सत्याग्रह में हिस्सा लिया और नमक कानून तोड़ने के लिए गिरफ्तार भी हुईं। इसके बाद वह असहयोग आंदोलन और करबंदी आंदोलन में सक्रिय रहीं।
1933 में, जब बंगाल के गवर्नर एंडरसन तामलुक आए, तो मातंगिनी ने उनके खिलाफ प्रदर्शन का नेतृत्व किया। उनकी निडरता ने ब्रिटिश अधिकारियों को हैरान कर दिया। 1935 में, जब तामलुक में बाढ़ के कारण हैजा और चेचक फैल गया, मातंगिनी ने अपनी जान की परवाह किए बिना राहत कार्यों में हिस्सा लिया, जिससे उनकी लोकप्रियता और बढ़ गई।

भारत छोड़ो आंदोलन और शहादत
1942 में, जब महात्मा गांधी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरुआत की, मातंगिनी हाजरा 72 साल की थीं। उनकी उम्र ने उनके जोश को कम नहीं किया। 29 सितंबर 1942 को, उन्होंने तामलुक में 6,000 समर्थकों के साथ एक जुलूस का नेतृत्व किया, जिसका मकसद ब्रिटिश पुलिस स्टेशन पर कब्जा करना था। ब्रिटिश पुलिस ने धारा 144 लागू कर जुलूस को रोकने की कोशिश की, लेकिन मातंगिनी ने हार नहीं मानी। वह तिरंगा झंडा थामे ‘वन्दे मातरम्’ का नारा लगाती हुई आगे बढ़ती रहीं।
ब्रिटिश पुलिस ने उन पर गोलियां चलाईं। पहली गोली उनके हाथ में लगी, फिर दूसरी और तीसरी गोली उनके सीने में। इसके बावजूद, मातंगिनी ने तिरंगा नहीं छोड़ा और नारे लगाती रहीं। अंततः वह जमीन पर गिर पड़ीं, लेकिन उनकी शहादत ने पूरे क्षेत्र में आजादी की चिंगारी को और भड़का दिया।

मातंगिनी की विरासत
मातंगिनी हाजरा की शहादत ने न केवल तामलुक, बल्कि पूरे भारत में स्वतंत्रता संग्राम को नई ऊर्जा दी। उनके बलिदान के बाद, तामलुक में लोगों ने ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंका और 21 महीने तक एक स्वतंत्र सरकार चलाई। 1974 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तामलुक में उनकी मूर्ति का अनावरण किया। 1977 में, कोलकाता में स्थापित पहली महिला क्रांतिकारी की मूर्ति मातंगिनी की थी। उनके नाम पर कोलकाता में हाजरा रोड, कई स्कूल, कॉलेज और संस्थान स्थापित किए गए। वह मिदनापुर जिले की ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की पहली महिला शहीद थीं, जिन्होंने भारतीय महिलाओं के लिए एक नया आदर्श स्थापित किया।

मातंगिनी हाजरा की गाथा हमें सिखाती है कि देशभक्ति और साहस की कोई उम्र नहीं होती। गरीबी, शिक्षा की कमी और व्यक्तिगत त्रासदियों के बावजूद, उन्होंने अपने जीवन को देश की सेवा में समर्पित कर दिया। उनकी कहानी भारतीय महिलाओं के लिए एक प्रेरणा है, जो बताती है कि समाज की बेड़ियां तोड़कर भी बड़े लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं। वह उन असंख्य गुमनाम नायिकाओं में से एक हैं, जिन्होंने भारत की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वतंत्रता दिवस के इस अवसर पर, मातंगिनी हाजरा को याद करना हमें अपने देश के प्रति कर्तव्य और समर्पण की भावना को मजबूत करता है।
राणा अंशुमान सिंह यूनिफाइड भारत के एक उत्साही पत्रकार हैं, जो निष्पक्ष और प्रभावी ख़बरों के सन्दर्भ में जाने जाना पसंद करते हैं। वह सामाजिक मुद्दों, धार्मिक पर्यटन, पर्यावरण, महिलाओं के अधिकारों और राजनीति पर गहन शोध करना पसंद करते हैं। पत्रकारिता के साथ-साथ हिंदी-उर्दू में कविताएँ और ग़ज़लें लिखने के शौकीन राणा भारतीय संस्कृति और सामाजिक बदलाव के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।