India Justice Report ने किये सवाल खड़े- न्याय व्यवस्था में ख़ामियां
प्रमुख बिंदु-
India Justice Report (IJR) 2025 ने एक बार फिर भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के सामने खड़ी चुनौतियों और असमानताओं को उजागर किया है। पुलिस, न्यायपालिका, जेल व्यवस्था और विधिक सहायता जैसे चार स्तंभों पर आधारित यह रिपोर्ट न केवल आंकड़ों के माध्यम से वर्तमान स्थिति का खुलासा करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि सुधार की गति कितनी धीमी है।

India Justice Report ने कहा पुलिस व्यवस्था में भारी रिक्तियां और कमजोर प्रशिक्षण ढांचा
रिपोर्ट के अनुसार, देश में प्रति 1 लाख जनसंख्या पर केवल 155 पुलिसकर्मी कार्यरत हैं, जबकि स्वीकृत संख्या 197.5 है। बिहार की स्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है, जहां यह अनुपात मात्र 81 है। इसके अतिरिक्त, प्रशिक्षण बजट का राष्ट्रीय औसत पुलिस बजट का केवल 1.25% है, और केवल 4 राज्य ही 2% से अधिक खर्च कर रहे हैं। अभी भी कई राज्यों में पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरों की अनुपस्थिति है, जिससे जवाबदेही सुनिश्चित करना मुश्किल हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट के 2020 के निर्देशों के बावजूद, कई राज्य इस दिशा में सुधार करने में विफल रहे हैं।
न्यायपालिका: मुकदमों का बोझ और रिक्तियां बनीं चुनौती

2024 तक, देश की अदालतों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। उच्च न्यायालयों में जहां 165 जजों की नियुक्ति 2022 में हुई, वहीं दो वर्षों में खाली पदों की संख्या फिर बढ़ गई है। अधीनस्थ न्यायालयों में भी लगभग 20% पद खाली हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान 34 न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या को कई बार पूरा किया, लेकिन जिला स्तर पर नियुक्तियों की प्रक्रिया जटिल और धीमी बनी हुई है। विशेष अदालतें और फास्ट ट्रैक अदालतें भी अधोसंरचना और मानव संसाधन की कमी के कारण अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही हैं।
जेल व्यवस्था: भीड़, इलाज की कमी और सुधार का अभाव

प्रति डॉक्टर 300 कैदियों के मानक के बावजूद कई जेलों में सैकड़ों कैदियों पर एक डॉक्टर है। 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 176 जेलों की आबादी 200% से अधिक है। 76% कैदी अभी भी विचाराधीन हैं यानी उन्हें दोषी ठहराया नहीं गया है। इससे न केवल जेलों पर दबाव बढ़ता है बल्कि यह न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति का भी प्रमाण है।
न्यायमूर्ति अमिताभ रॉय समिति की रिपोर्ट बताती है कि केवल 68% कैदियों के पास पर्याप्त सोने की जगह है। सुधारात्मक कार्यक्रमों की कमी और विशेषज्ञ कर्मचारियों की अनुपस्थिति जेलों को पुनर्वास की जगह दंड केंद्र बना रही है। भारतीय जेलों में क्षमता से 131% अधिक बंदी हैं, और 12 से अधिक जेलों में यह आंकड़ा 400% तक पहुँच गया है।
- डॉक्टर और मनोवैज्ञानिकों की भारी कमी है — औसतन एक डॉक्टर सैकड़ों कैदियों की जिम्मेदारी उठाता है।
- सुधारात्मक उपाय, जैसे कानूनी सहायता, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और ओपन जेलों की संख्या बेहद कम है।
विधिक सहायता प्रणाली: संसाधनों में कटौती, ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा

हाल के वर्षों में जेल क्लीनिक और Legal Aid Defense Counsel (LADC) जैसे लक्षित प्रयासों पर जोर दिया गया है, लेकिन इसके कारण व्यापक कानूनी जागरूकता कार्यक्रमों में कटौती हुई है। 2019 के बाद से पारा-लीगल वॉलंटियर्स की संख्या में गिरावट आई है। रिपोर्ट यह दर्शाती है कि दूरदराज के इलाकों में तालुका स्तर की कानूनी सहायता अब लगभग बंद हो चुकी है, जिससे समाज के कमजोर वर्गों के लिए न्याय तक पहुंच और कठिन हो गई है।
दंड प्रक्रिया में फॉरेंसिक की भूमिका और उसकी विफलता
50% से अधिक फॉरेंसिक स्टाफ के पद खाली हैं। फॉरेंसिक लैब की संख्या कम, बजट सीमित और प्रशिक्षित कर्मियों की भारी कमी के कारण वैज्ञानिक जांच प्रक्रिया धीमी और अव्यवस्थित हो गई है। तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों ने इस दिशा में पहल की है, लेकिन अधिकतर राज्यों में फॉरेंसिक संस्थान पुलिस विभाग के अधीन हैं, जिससे निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं।
डिजिटल समाधान और डेटा का महत्व
रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि डेटा आधारित निर्णय-प्रक्रिया से नीतियों को सशक्त बनाया जा सकता है। ई-प्रिज़न्स, एनजेडीजी (National Judicial Data Grid), वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग जैसी पहलें सुधार की दिशा में कदम हैं, लेकिन इनका प्रभाव सीमित है क्योंकि मूलभूत ढांचे का अभाव बना हुआ है।
विविधता और समावेश की दिशा में अधूरी पहल
महिलाओं की भागीदारी पुलिस और न्यायपालिका में धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन 33% आरक्षण का लक्ष्य अभी दूर है। दिव्यांगजनों की भागीदारी लगभग न के बराबर है, जबकि RPWD Act 2016 के तहत 4% आरक्षण अनिवार्य है।
- महिला पुलिसकर्मियों की संख्या में वृद्धि तो हुई है लेकिन सिर्फ 5 राज्य ही 33% के लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं।
- न्यायपालिका में भी महिला जजों की संख्या बढ़ी है लेकिन उच्च पदों पर इनकी भागीदारी बेहद कम है।
- अनुसूचित जाति/जनजाति और OBC के लिए आरक्षण लागू तो है लेकिन हर राज्य में लागू नहीं किया गया।
- विकलांग जनों की उपस्थिति न्याय तंत्र में नगण्य है, और RPWD Act के 4% आरक्षण का कोई असर नहीं दिखता।
राज्यवार निष्कर्ष: दक्षिण भारत सबसे आगे
कर्नाटक ने एक बार फिर टॉप रैंक प्राप्त की है, जबकि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना ने भी बेहतर प्रदर्शन किया है। उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल अभी भी सबसे नीचे हैं। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और ओडिशा ने क्रमिक सुधार दिखाए हैं जबकि महाराष्ट्र की रैंकिंग में गिरावट आई है।
मानवाधिकार आयोग: उपेक्षित संस्थान
राज्य मानवाधिकार आयोगों (SHRCs) की भूमिका रिपोर्ट में पहली बार 2022 में जोड़ी गई थी। 2025 की रिपोर्ट दिखाती है:
- 80% से अधिक मामलों में आयोग केवल प्रारंभिक चरण में ही केस को अस्वीकार कर देता है।
- अधिकांश आयोगों की वेबसाइट अपडेट नहीं होती, और RTI का जवाब भी ठीक से नहीं दिया जाता।
- महिला कर्मचारियों की भागीदारी और शिकायत निवारण की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी है।
निष्कर्ष: सुधार की गति धीमी, लेकिन दिशा सही
India Justice Report 2025 यह दर्शाता है कि सुधार के प्रयासों के बावजूद आपराधिक न्याय प्रणाली में गहरे ढांचागत संकट बने हुए हैं। कम बजट, भारी रिक्तियां, अधूरी नियुक्तियाँ और डेटा के अभाव में नीति-निर्माण प्रक्रिया बाधित हो रही है। सुधार तभी संभव है जब राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ-साथ संस्थागत नेतृत्व और नागरिक समाज की भागीदारी को बढ़ावा मिले। यह रिपोर्ट केवल एक दस्तावेज नहीं, बल्कि चेतावनी है कि यदि हमने अभी भी न्याय प्रणाली को सशक्त बनाने के प्रयास नहीं किए, तो ‘न्याय’ केवल एक आदर्श रह जाएगा, वास्तविकता नहीं।
अवि नमन यूनिफाइड भारत के एक विचारशील राजनीतिक पत्रकार और लेखक हैं, जो भारतीय राजनीति, नीति निर्माण और सामाजिक न्याय पर तथ्यपरक विश्लेषण के लिए जाने जाते हैं। उनकी लेखनी में गहरी समझ और नया दृष्टिकोण झलकता है। मीडियम और अन्य मंचों पर उनके लेख लोकतंत्र, कानून और सामाजिक परिवर्तन को रेखांकित करते हैं। अवि ने पत्रकारिता के बदलते परिवेश सहित चार पुस्तकों की रचना की है और सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता के लिए समर्पित हैं।