“आजाद हैं, आजाद ही रहेंगे”: 15 साल की उम्र में अंग्रेजों को ललकारने वाले चंद्रशेखर आजाद की क्रांतिकारी गाथा

The Revolutionary Saga of Chandra Shekhar Azad

23 जुलाई 2025 को भारत एक बार फिर उस वीर सपूत को याद करता है, जिसका नाम सुनते ही देशभक्ति की लहर हर दिल में दौड़ पड़ती है। चंद्रशेखर आजाद (Chandra Shekhar Azad), एक ऐसा नाम, जो स्वतंत्रता की ज्वाला का प्रतीक है। उनकी कहानी केवल वीरता और बलिदान की नहीं, बल्कि एक ऐसे युवा की है, जिसने अपने जीवन को मातृभूमि के लिए समर्पित कर दिया। यह कहानी उस आग की है, जो काशी की गलियों से शुरू होकर अल्फ्रेड पार्क तक जली। इसमें आचार्य नरेंद्र देव, मन्मथनाथ गुप्त, भगत सिंह, अशफाक उल्ला खान और बटुकेश्वर दत्त जैसे प्रबुद्ध व्यक्तियों का प्रभाव भी शामिल है, जिन्होंने आजाद के विचारों को दिशा दी तथा उनका साथ दिया।

WhatsApp Channel Join Now
Instagram Profile Join Now
Chandrashekhar Azad

काशी ने चंद्रशेखर तिवारी को बनाया “आजाद”

1906 की गर्मियों में मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाबरा गांव में पंडित सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के घर एक बालक ने जन्म लिया। नाम रखा गया “चंद्रशेखर तिवारी”। माता-पिता का सपना था कि उनका बेटा संस्कृत का विद्वान बने, एक पंडित के रूप में समाज की सेवा करे। इसीलिए, जब चंद्रशेखर 15 वर्ष के हुए, तो उन्हें काशी भेजा गया। वाराणसी, वह पवित्र नगरी जहां गंगा का प्रवाह और मंदिरों की घंटियां आत्मा को जागृत करती हैं, चंद्रशेखर के जीवन का पहला पड़ाव बनी। काशी में पहुंचते ही चंद्रशेखर का परिचय शहर के अखाड़ों से हुआ।

चंद्रशेखर के मित्र रहे नंदकिशोर निगम ने अपनी जीवनी बलिदान में लिखा है कि काशी के अखाड़ों को देखकर चंद्रशेखर को पहलवानी का शौक चढ़ गया। कुछ ही महीनों में उनकी देह इतनी बलिष्ठ हो गई कि एक बार सड़क पर महिलाओं को छेड़ने वाले कुछ असामाजिक तत्वों से उनकी भिड़ंत हुई। चंद्रशेखर ने एक गुंडे को धरती पर ऐसा चित किया कि बाकी लोग डर के मारे भाग खड़े हुए। इस घटना के बाद काशी की गलियों में उनके साहस और बल की चर्चा फैल गई।

इस घटना की खबर जब काशी विद्यापीठ में समाजवादी विचारधारा के प्रखर प्रवक्ता और शिक्षक आचार्य नरेंद्र देव तक पहुंची, तो उन्होंने तत्काल चंद्रशेखर को बुलवाया। आचार्य नरेंद्र देव ने उनकी शारीरिक शक्ति के साथ-साथ उनके साहस को भी पहचाना और उन्हें काशी विद्यापीठ में दाखिला दिलवाया, जहां उस समय महान शिक्षक और विद्वान संपूर्णानंद मुख्य अध्यापक थे। काशी विद्यापीठ के कुमार विद्यालय में चंद्रशेखर ने हिंदी और संस्कृत की पढ़ाई शुरू की, जहां वे एक होनहार छात्र के रूप में उभरे। लेकिन उनकी नियति कुछ और थी।

Acharya Narendra Dev Chandra Shekhar Azad

विश्वनाथ वैशंपायन की पुस्तक अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद के अनुसार, काशी में उनकी मुलाकात पहले क्रांतिकारी साथी मन्मथनाथ गुप्ता से हुई। इसके बाद उन्होंने सशस्त्र क्रांति का रास्ता चुना और सचींद्र नाथ सान्याल, बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, जयदेव और आचार्य धरमवीर जैसे क्रांतिकारियों का साथ पाया। यहीं से काकोरी ट्रैन एक्शन जैसी ऐतिहासिक घटना की नींव पड़ी।

1919 का जलियांवाला बाग नरसंहार वह क्षण था, जिसने चंद्रशेखर के जीवन की दिशा बदल दी। अमृतसर में निहत्थे लोगों पर अंग्रेजों की गोलियों ने उनके कोमल मन को झकझोर दिया। मात्र 13 वर्ष की आयु में उनके भीतर विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। आचार्य नरेंद्र देव ने उन्हें समझाया कि स्वतंत्रता केवल किताबों से नहीं, बल्कि संघर्ष और बलिदान से मिलेगी। इस विचार ने चंद्रशेखर को एक नई राह दिखाई। काशी विद्यापीठ उस समय क्रांतिकारियों और नेताओं का एक बड़ा मंच था। इस माहौल ने चंद्रशेखर क्रांतिकारी सोच को और पक्का किया।

1921 में, जब महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन पूरे देश में जोर पकड़ रहा था तभी 15 वर्षीय चंद्रशेखर ने काशी की सड़कों पर उतरकर आंदोलन में हिस्सा लिया। एक धरने के दौरान अंग्रेज पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। कचहरी में मजिस्ट्रेट ने जब उनसे उनका नाम पूछा, तो किशोर चंद्रशेखर ने निर्भीकता से जवाब दिया, “मेरा नाम आजाद, पिता का नाम स्वतंत्रता और घर का पता जेलखाना!” यह जवाब सुनकर मजिस्ट्रेट तिलमिला उठा और सजा के तौर पर उन्हें 15 बेंत मारे गए, लेकिन हर बेंत के साथ चंद्रशेखर का कंठ “वंदे मातरम” और “भारत माता की जय” से गूंज उठा। उस दिन से काशी की गलियों में चंद्रशेखर तिवारी “आजाद” बन गए।

हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से क्रांति का प्रारंभ

1922 में हुए चौरी-चौरा कांड के बाद जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, तो चंद्रशेखर आज़ाद का अहिंसात्मक आंदोलन से मोहभंग होने लगा। उन्हें यह महसूस हुआ कि सिर्फ अहिंसा से अंग्रेज़ी शासन नहीं हटाया जा सकता। ऐसे समय में राम प्रसाद बिस्मिल, सचिंद्रनाथ सान्याल, जोगेश चंद्र चटर्जी और सचिंद्रनाथ बख्शी आदि के नेतृत्व में 1924 में ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की नींव रखी गई, जिसका उद्देश्य था ब्रिटिश शासन को सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से समाप्त करना और एक संप्रभु गणराज्य की स्थापना करना।

इस संगठन में आज़ाद की भूमिका बहुत जल्द महत्वपूर्ण हो गई, क्योंकि वे निशानेबाजी और रणनीतिक संचालन की कला में निपुण थे। मन्मथनाथ गुप्ता, अशफाक उल्ला खान, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव जैसे युवा क्रांतिकारियों ने उनके साथ मिलकर गुप्त बैठकों, हथियारों के प्रशिक्षण एवं योजनाओं का विस्तार किया

HRA के बैनर तले 1925 में काकोरी ट्रेन एक्शन जैसी बड़ी घटनाएं हुईं, जिसमें सरकार के खजाने को लूटकर क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाना मुख्य उद्देश्य था। यह घटना आज़ाद की संगठनात्मक क्षमता और साहसिक नेतृत्व का श्रेय बन गई। HRA का सबसे बड़ा योगदान यही था कि इसने भारत के युवाओं में ‘सशस्त्र विद्रोह’ की अलख जगा दी और व्यक्तिगत बलिदान को संगठित जनबल में बदल दिया।

1928 के बाद संगठन का पुनर्गठन ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (HSRA) के रूप में हुआ, जिसमें समाजवाद और समानता के विचार प्रमुख थे। आज़ाद ने भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि के साथ मिलकर अंग्रेज़ी सरकार के दमन के खिलाफ राष्ट्रीय चेतना को नई धार दी। काशी, कानपुर, लखनऊ जैसे शहर सेंटर बने, जहां से क्रांतिकारी नेटवर्क फैलते गये और ब्रिटिश हुकूमत के लिए ‘आजाद’ और उनके साथियों का नाम क्रांति का पर्याय बन गया।

काकोरी ट्रेन एक्शन

9 अगस्त 1925 की शाम, चंद्रशेखर आजाद अपने साथि मन्मथनाथ गुप्त, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी, सचिंद्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती सहित कुल दस क्रांतिकारियों के साथ लखनऊ के निकट काकोरी रेलवे स्टेशन के पास नंबर 8 डाउन ट्रेन को रोकते हैं। ट्रेन की चेन खींचकर उसे रोका जाता है और क्रांतिकारी ब्रिटिश सरकार का सरकारी खजाना, जो विभिन्न स्टेशनों से एकत्रित कर लखनऊ जमा करने के लिए ले जाया जा रहा था, हथिया लेते हैं। इस अभियान का उद्देश्य अंग्रेजी राज के अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना, हथियार खरीदना व आंदोलन की ताकत बढ़ाना था।

मन्मथनाथ गुप्त ने अपनी किताब आधी रात के अतिथि में लिखा, “आजाद ने लूटे गए धन की गठरी को लखनऊ पहुंचाने की जिम्मेदारी ली। गोमती नदी के किनारे घंटों चलने के बाद हम चौक पहुंचे, जहां रात के अंधेरे में भी कुछ लोग जाग रहे थे।” इस घटना ने ब्रिटिश प्रशासन को हिलाकर रख दिया। ब्रिटिश प्रशासन द्वारा तुरंत ही बड़े स्तर पर छापे और गिरफ्तारियां शुरू की गईं जिनमें बहुत से साथी पकड़े गए, उन पर मुकदमे चले और कई को फांसी व लंबी सजाएं हुईं। लेकिन आजाद पुलिस की पकड़ से बच निकले, जिसने उनकी चतुराई और साहस को रेखांकित किया। इस क्रांतिकारी कदम ने पूरे देश में क्रांतिकारी आंदोलन को नई ऊर्जा दी।

लाला लाजपत राय की हत्या का बदला

1928 में साइमन कमीशन के विरोध में लाहौर में हुए ऐतिहासिक प्रदर्शन के दौरान लाला लाजपत राय पर अंग्रेज पुलिस द्वारा भीषण लाठीचार्ज किया गया। इस शांतिपूर्ण जुलूस की अगुवाई करने वाले लाजपत राय को पुलिस सुपरिटेंडेंट जेम्स ए. स्कॉट ने व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाया, जिससे वे गंभीर रूप से घायल हो गए। चोटों के कारण 17 नवंबर 1928 को उनका निधन हो गया। “मेरे सिर पर पड़े ये डंडे ब्रिटिश शासन के ताबूत की आखिरी कील साबित होंगे”, उनकी इस अंतिम वाणी ने समूचे देश में आक्रोश की लहर दौड़ा दी। खासकर क्रांतिकारी युवाओं के लिए यह घटना निर्णायक बन गई, जिन्होंने हिंसात्मक प्रतिकार का संकल्प लिया।

लाला लाजपत राय की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और आज़ाद ने मिलकर योजना बनाई। 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन सॉन्डर्स की हत्या कर दी गई। गलती से सॉन्डर्स को सुपरिंटेंडेंट जेम्स स्कॉट समझ लिया गया, लेकिन इस कार्रवाई ने ब्रिटिश शासन को सकते में डाल दिया।

Bhagat-Singch-Sounders-murder
प्रतिनिधित्वात्मक छवि

बाबू कृष्णमूर्ति की पुस्तक आजाद द इनविंसिबल के अनुसार, “जब हेड कांस्टेबल चानन सिंह भगत सिंह का पीछा कर रहा था, तब आजाद ने चेतावनी दी, ‘रुको!’ लेकिन चानन सिंह नहीं रुका। आखिरकार, आजाद ने गोली चलाई और चानन सिंह वहीं ढेर हो गया।” इस घटना के बाद लाहौर की दीवारों पर HSRA के पोस्टर चिपक गए, जिनमें लिखा था, “लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया गया।” इन पोस्टरों में आजाद का नारा “दुश्मन की गोलियों का सामना करेंगे, आजाद हैं, आजाद ही रहेंगे” भी गूंजा, जो कई नव क्रांतिकारियों का प्रेरणा स्रोत बना।

सेंट्रल असेंबली में बम विस्फोट: आजाद की रणनीति

सेंट्रल असेंबली बम कांड 1929 भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का अहम पड़ाव था। 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की केंद्रीय असेंबली (अब संसद भवन) की दर्शक दीर्घा से दो गैर-घातक बम फेंके। इन बमों का लक्ष्य किसी को हानि पहुँचाना नहीं था, बल्कि ब्रिटिश सरकार द्वारा लाए जा रहे ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल’ जैसे दमनकारी कानूनों के खिलाफ जोरदार प्रतिरोध दर्ज कराना था।

बम फेंकने के बाद भगत सिंह और दत्त ने सभागार में “इंकलाब जिंदाबाद” और “डाउन विद ब्रिटिश इम्पीरियलिज्म” जैसे नारों के साथ पर्चे फेंके और स्वेच्छा से गिरफ्तारी दी, ताकि क्रांतिकारी विचारधारा को देशभर में चर्चा का विषय बनाया जा सके। यह कार्यव्यवस्था बेहद जोखिम भरी थी, लेकिन इसके पीछे HSRA के संगठित सोच और कुशल नेतृत्व की झलक दिखाई देती है।

Bhagat Singh
सेंट्रल असेंबली बम कांड की खबर (अखबार कटआउट)

इस पूरी योजना में चंद्रशेखर आज़ाद की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण और निर्णायक रही। कई ऐतिहासिक दस्तावेजों और भगत सिंह की जेल डायरी के अनुसार, आज़ाद ने इस अभियान की रणनीति, बम निर्माण, संपर्क और लॉजिस्टिक्स का संचालन संगठित रूप से किया था। भगत सिंह, आज़ाद के अत्यंत विश्वासपात्र और प्रेरणा-स्रोत रहे। योजना के प्रारंभिक चरण में आज़ाद स्वयं असेंबली में बम फेंकने के इच्छुक थे, लेकिन संगठन के निर्णय के अनुसार, भगत सिंह का नाम आगे किया गया क्योंकि वह “आंदोलन के विचार और उद्देश्य” को अधिक प्रभावी ढंग से जनता तक पहुँचा सकते थे।

बम फेंकने के बाद भगत सिंह और दत्त की गिरफ्तारी की तैयारी भी आज़ाद के नेतृत्व में ही हुई थी और वह अन्य साथियों को छिपाने, साक्ष्य नष्ट करने और संचार व्यवस्था सक्रिय रखने के लिए तत्पर रहे। कहा जाता है कि आज़ाद की रणनीतिक सूझबूझ और संगठनात्मक क्षमता नहीं होती, तो HSRA का यह साहसिक अभियान इतना गूंजदार सिद्ध नहीं हो पाता।

आजाद की कर्मभूमिकाशी

चंद्रशेखर आजाद का काशी से गहरा नाता था। यह वही शहर था जहां उन्होंने “आजाद” नाम से एक अमर पहचान अर्जित किया। 1920 के दशक में काशी क्रांतिकारियों का केंद्र थी, जहां गलियों से लेकर घाटों तक राष्ट्रप्रेम की भावना प्रबल थी। काशी के कड़े अनुशासन वाले अखाड़ों, विशेषकर ‘लालकुटिया अखाड़ा’ में उन्होंने शारीरिक और मानसिक दृढ़ता हासिल की। रुस्तम पहलवान और अन्य साथी अखाड़े में आज़ाद को ट्रेनिंग देते और उनके साथियों को गुप्त मार्गदर्शन करते। कहते हैं, काशी के विश्वनाथ और काल भैरव मंदिर, जहां भक्तों की भीड़ में वे अक्सर साधु, पुजारी या अखाड़ेबाज़ के भेष में छुप जाते थे, यही उनके गुप्त योजनाओं और बैठकों की जगह थी।

बीएचयू के इतिहास विभाग के प्रो. राकेश पांडेय बताते हैं, “आजाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पुराने हॉस्टलों और लाल कुटिया अखाड़ा में शरण लेते थे।” काशी ने उनकी क्रांतिकारी सोच को निखारा और उन्हें मन्मथनाथ गुप्ता, भगत सिंह और सुखदेव जैसे साथियों से जोड़ा। 1921 में काशी में उनकी गिरफ्तारी और उसके बाद जनता का अपार समर्थन उनकी पहचान को और मजबूत कर गया। काशी विद्यापीठ और शहर के अखाड़ों ने उनके क्रांतिकारी जीवन को आकार दिया।

आज़ाद अक्सर पुराने हॉस्टलों, मंदिरों के गलियारों और शहर के संकरे मोहल्लों में योजनाएं बनाते। युवा छात्रों से जुड़कर उन्होंने ब्रिटिश इंटेलिजेंस की नज़रों से बचते हुए काशी को क्रांतिकारी नेटवर्क का अभेद्य गढ़ बना दिया। काशी के बहाने आज़ाद ने उत्तर भारत में क्रांति का ताना-बाना बुनने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई, जो न सिर्फ अंग्रेज पुलिस के लिए सिरदर्द था, बल्कि फक्कड़ और निर्भीक क्रांतिकारी संगठन का मजबूत आधार भी बनी।

Kashi Old Photo

अल्फ्रेड पार्क में शहादत: “आजाद ही रहेंगे”

27 फरवरी 1931 की सुबह, इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आजाद पार्क) में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक चंद्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ रणनीति बना रहे थे। इसी दौरान किसी विश्वासघात की वजह से सीआईडी प्रमुख जे.आर.एच. नॉट-बावर और कर्नलगंज थाने की पुलिस बल ने पार्क को चारों ओर से घेर लिया। पार्क में करीब 40 से 80 हथियारबंद पुलिसकर्मी तैनात थे।

अचानक छापे के बावजूद, आजाद ने अदम्य साहस दिखाया और अपनी .32 बोर की पिस्तौल से भयंकर गोलीबारी शुरू कर दी। उन्होंने न केवल अपने साथी सुखदेव राज को सुरक्षित निकलने में मदद की, बल्कि करीब 20 मिनट तक चली भयंकर गोलीबारी में आजाद ने अकेले ही तीन पुलिसकर्मियों को मार गिराया और कई अन्य को घायल किया। आजाद ने पार्क के एक पेड़ की आड़ लेकर अपनी अंतिम लड़ाई लड़ी। जैसे-जैसे गोलियां कम होती गईं, उन्होंने हर पल अंग्रेजों के खिलाफ अपनी प्रतिज्ञा को निभाया, “मैं कभी जिंदा नहीं पकड़ा जाऊंगा।” जब अंत में उनके पास एकमात्र गोली बची तो आजाद ने वही गोली खुद को मारकर शहादत चुनी और अपने “आजाद” नाम को सार्थक किया।

Chandrashekhar Azad last photo
अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हुए चंद्रशेखर आज़ाद की अंतिम तस्वीर

उनकी मृत्यु के बाद, ब्रिटिश सरकार ने उस पेड़ को कटवा दिया, जिसके पीछे आजाद ने अंतिम लड़ाई लड़ी थी, ताकि वह स्थान राष्ट्रीय तीर्थ न बन सके। किंतु, 1939 में स्वतंत्रता सेनानी बाबा राघवदास ने आज़ाद की स्मृति में उसी स्थान पर एक जामुन का पेड़ लगाया, जो आज भी भावी पीढ़ियों के लिए उनके बलिदान और जज्बे की याद में खड़ा है

आजाद की कोल्ट पिस्तौल ‘बमतुल बुखारा’

चंद्रशेखर आजाद की .32 बोर की कोल्ट पिस्तौल जिसे क्रांतिकारियों ने ‘बमतुल बुखारा’ नाम दिया था, स्वतंत्रता संग्राम की विरासत का अनमोल प्रतीक है। यह हथियार कोल्ट मॉडल 1903 पॉकेट हैमरलेस सेमी-ऑटोमेटिक पिस्तौल था, जिसमें आठ राउंड की डिटैचेबल मैगजीन थी और इसे अमेरिकी निर्माता कोल्ट ने 22 दिसंबर 1903 को बनाया था। इस पिस्तौल की सबसे विशिष्ट विशेषता उसका स्मोकलेस फायरिंग मैकेनिज्म था अर्थात इससे गोलियां चलने के बाद धुआं नहीं निकलता था जिससे आजाद गुप्त स्थान से दुश्मन पर सटीक वार कर सकते थे और छिपे रह सकते थे। यह हथियार अपने वक्त की बीहड़ तकनीक का उदाहरण था, जिससे ब्रिटिश पुलिस को बार-बार छकाना संभव हुआ।

अल्फ्रेड पार्क (वर्तमान चंद्रशेखर आजाद पार्क, प्रयागराज) में 27 फरवरी 1931 की अंतिम ऐतिहासिक मुठभेड़ के बाद ब्रिटिश पुलिस अधिकारी एसएसपी नॉट-बावर ने इसे बरामद किया था। आज़ाद ने इसी पिस्तौल की अंतिम गोली खुद पर चलाकर अपनी “आजाद रहूँगा” कसम को निभाया था। बाद में, यह पिस्तौल 3 जुलाई 1976 को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लखनऊ संग्रहालय से इलाहाबाद (अब प्रयागराज) राष्ट्रीय संग्रहालय को स्थानांतरित की गई और 19 जुलाई 1979 को पहली बार प्रदर्शनी में रखी गई। आज भी प्रयागराज संग्रहालय के ‘आजाद गैलरी’ में यह पिस्तौल संरक्षित है, पिस्तौल को नियमित रूप से विशेषज्ञों द्वारा साफ और ग्रीस किया जाता है ताकि इसकी ऐतिहासिक विरासत कायम रहे

आजाद हैं, आजाद ही रहेंगे” की उत्पत्ति

आजाद का प्रख्यात नारा “दुश्मन की गोलियों का सामना करेंगे, आजाद हैं, आजाद ही रहेंगे” उनकी अटल स्वतंत्रता की भावना का प्रतीक है। मन्मथनाथ गुप्त की जीवनी चंद्रशेखर आजाद के अनुसार, यह नारा काशी में उनकी गिरफ्तारी के बाद उनकी पहचान बन गया। HSRA की बैठकों में वे इसे गुनगुनाते थे, जिससे उनके साथी प्रेरित होते थे। सॉन्डर्स हत्या के बाद लाहौर में चिपकाए गए पोस्टरों में इस नारे ने क्रांतिकारियों को एकजुट किया। आजाद की कविता, जैसे

“मां हम विदा हो जाते हैं, हम विजय केतु फहराने आज,
तेरी बलिवेदी पर चढ़कर मां, निज शीश कटाने आज।”,

उनकी देशभक्ति और बलिदान की भावना को दर्शाती है। यह नारा आज भी भारत की स्वतंत्रता की भावना को प्रज्वलित करता है।

manmath nath gupta Chandrashekhar Azad book
मन्मथनाथ गुप्त द्वारा लिखित जीवनी चंद्रशेखर आजाद

आजाद और भगत सिंह: एक अटूट याराना

चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह की मित्रता भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी अध्याय की नींव थी। आज़ाद न केवल क्रांतिकारियों के अभिभावक और प्रशिक्षक थे, बल्कि भगत सिंह को सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित भी करते थे। भगत सिंह और आज़ाद के बीच गहरी आपसी समझ, विश्वास और समान विचारधारा थी। दोनों यह मानते थे कि स्वतंत्रता सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय से ही पूरी होगी। उनके संबंध इतने गहरे थे कि कहा जाता है, दोनों के बीच यह सौदा हुआ था कि “देखना कौन पहले देश के लिए शहीद होता है।”

जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को सॉन्डर्स हत्याकांड और असेंबली बम कांड के लिए फांसी की सजा सुनाई गई, तो चंद्रशेखर आजाद ने उन्हें बचाने के लिए अपने स्तर पर हरसंभव कोशिशें कीं। गुप्त योजनाएं बनाई गईं, हरदोई जेल में गणेश शंकर विद्यार्थी और इलाहाबाद में जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात की गई, ताकि राजनीतिक दबाव के द्वारा फांसी को रोका जा सके। आज़ाद ने कानूनी सहायता, जनजागरूकता और यहां तक कि जेल तोड़कर भगत सिंह को छुड़ाने जैसे जोखिम भरे प्रयासों की भी योजनाएं बनाईं, हालांकि वे परिस्थितियों के आगे सफल नहीं हो पाए।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो. हेरंब चतुर्वेदी सहित कई इतिहासकार कहते हैं, “अगर आजाद शहीद न हुए होते और भगत सिंह को छुड़ा लिया होता, तो स्वतंत्रता संग्राम की कहानी कुछ और होती।” दरअसल, आज़ाद और भगत सिंह की मित्रता सिर्फ व्यक्तिगत नहीं, बल्कि उन तमाम युवाओं की सांझी विरासत है जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगाई थी।

chandra_shekhar_azad_bhagat_singh

आजाद की अस्थियां: एक अनसुलझी कहानी

चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आजाद पार्क) में हुई थी, जब उन्होंने घिर जाने पर अपनी आखिरी गोली खुद को मारकर “मैं आज़ाद हूं, आज़ाद ही मरूंगा” अपने इस जीवन-संकल्प को निभाया। उनके बलिदान के बाद उनके फूफा शिवविनायक मिश्र और कुछ क्रांतिकारी साथियों ने ब्रिटिश हुकूमत की कड़ी निगरानी के बावजूद उन्हीं के शव को अपने संरक्षण में लिया। यह व्यापक रूप से दर्ज है कि शिवविनायक मिश्र ने ही आज़ाद के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार इलाहाबाद के संगम तट पर किया।

इसके बाद, परंपरा के अनुसार अस्थि-कलश को उनकी कर्मभूमि काशी (वाराणसी) लाया गया, ताकि वहां के क्रांतिकारी साथ संग उनकी वीरता की प्रेरणा बची रहे। काशी विद्यापीठ के तत्कालीन शीर्ष क्रांतिकारी और समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव ने इस ऐतिहासिक यात्रा में अहम भूमिका निभाई। कथाओं और गौरवगाथाओं में उल्लेख है कि उनकी अस्थियाँ वाराणसी के नगरी के लोगों एवं स्वतंत्रता आंदोलन में जुड़े युवाओं के लिए श्रद्धा और सम्मान का बिंदु बन गईं। 1 अगस्त 1976 को काशी विद्यापीठ परिसर से एक शोभायात्रा निकाली गई थी और आजाद की अस्थि-कलश को अत्यंत श्रद्धा से लेकर 10 अगस्त को लखनऊ स्थित संग्रहालय में जमा कराया गया।

आज़ाद की शहादत के दशकों बाद, उनकी अस्थियों का एक कलश आज भी लखनऊ के राज्य संग्रहालय में ‘डबल लॉक’ में संरक्षित रखा गया है। यह तथ्य है कि स्वतंत्रता के बाद भी आज़ाद की अस्थियों को हिंदू रीति के अनुसार गंगा में विसर्जित नहीं किया जा सका, जबकि परंपरागत रूप से किसी भी भारतीय के लिए, विशेषकर काशी जैसे अमर नगरी के क्रांतिकारी के लिए यह सम्मान सबसे बड़ा माना जाता है। आज भी संग्रहालय में शिवविनायक मिश्र का हस्तलिखित प्रमाणपत्र, अस्थि-कलश के साथ संग्रहीत है। दुर्भाग्यवश, इसका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं होता और आमजन को देखने या श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए विशेष अनुमति या प्रार्थनापत्र देना पड़ता है।

आजाद की विरासत

चंद्रशेखर आजाद का जीवन आज भी हर भारतीय के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनकी वीरता और देशभक्ति की कहानियां स्कूलों, कॉलेजों और साहित्य में जीवित हैं। देशभर में उनके नाम पर सड़कें, स्कूल, और पार्क स्थापित हैं। काशी में काशी विद्यापीठ, लहुराबीर चौराहा और सेंट्रल जेल में उनकी प्रतिमाएं उनकी गौरव गाथा को बयां करती हैं। इलाहाबाद संग्रहालय में रखी उनकी 32 बोर की अमेरिकी पिस्तौल, जिससे उन्होंने आखिरी गोली स्वयं को मारी थी, पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। उनकी जिंदगी पर आधारित 2018 की टीवी श्रृंखला चंद्रशेखर और डीडी नेशनल की स्वराज (एपिसोड 65) ने उनकी कहानी को नई पीढ़ी तक पहुंचाया। उनका नारा “इंकलाब जिंदाबाद” आज भी अन्याय के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक है।

चंद्रशेखर आजाद का जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची आजादी के लिए बलिदान और अडिग संकल्प जरूरी है। उनकी कसम “दुश्मन की गोलियों का सामना करेंगे, आजाद हैं, आजाद ही रहेंगे” आज भी हमारे दिलों में गूंजती है। काशी, उनकी कर्मभूमि, उनकी स्मृतियों को संजोए हुए है। उनकी पिस्तौल और अस्थियों को उचित सम्मान देना हमारी जिम्मेदारी है। इस जयंती पर, आइए हम सब मिलकर चंद्रशेखर आजाद को श्रद्धांजलि अर्पित करें और उनके सपनों के भारत को साकार करने का संकल्प लें।

ub footer
TVS Apache RTX 300 लॉन्च KTM बाइक्स अब सबसे ज्यादा सस्ती Logitech MX Master 4 लॉन्च! अनुराग कश्यप की क्राइम-ड्रामा वाली 9 फिल्में जो दिमाग हिला दे! BMW खरीदने का सुनहरा मौका Best Adventure Bike