डाला के शहीदों की चीख: 34 साल बाद भी नहीं मिला पूरा इंसाफ!
प्रमुख बिंदु-
Unified Bharat, Sonbhadra: 2 जून 1991 का दिन उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के डाला में एक ऐसी त्रासदी लेकर आया, जिसने न केवल स्थानीय निवासियों के दिलों को झकझोर दिया, बल्कि पूरे देश में सनसनी मचा दी। उस दिन डाला सीमेंट फैक्ट्री के सामने शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे निहत्थे मजदूरों और उनके परिजनों पर तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार के आदेश पर पुलिस ने गोलियां बरसाईं। इस गोलीकांड में एक छात्र सहित नौ लोगों की जान चली गई और सैकड़ों घायल हुए। आज, 34 साल बाद भी, हर 2 जून को डाला के लोग ‘शहीद दिवस’ मनाकर उन बलिदानियों को याद करते हैं जिन्होंने अपनी जान गंवाई।
एक काला दिन जो आज भी सिहरन पैदा करता है
1990 के दशक में उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह यादव सरकार ने डाला, चुर्क और चुनार की राजकीय सीमेंट फैक्ट्रियों को निजी हाथों में सौंपने का फैसला लिया। इसका उद्देश्य घाटे में चल रही इन इकाइयों को संयुक्त क्षेत्र में चलाना था, लेकिन इस निर्णय का सीमेंट कर्मियों ने पुरजोर विरोध किया। डाला सीमेंट फैक्ट्री के कर्मचारी, जो गांधीवादी तरीके से शांतिपूर्ण आंदोलन चला रहे थे, अपने रोजगार और आजीविका की रक्षा के लिए सड़कों पर उतर आए। 2 जून 1991 को, डाला कॉलोनी के मुख्य गेट के सामने वाराणसी-शक्तिनगर मार्ग पर हजारों कर्मचारी और स्थानीय लोग एकत्र हुए। यह एक रविवार का दिन था, जब आसपास के गांवों से लोग बाजार में सामान खरीदने आए थे।

दोपहर के करीब 2:20 बजे, बिना किसी चेतावनी के स्थानीय प्रशासन ने पुलिस को गोली चलाने का आदेश दिया। शांतिपूर्ण ढंग से धरने पर बैठे निहत्थे कर्मियों और उनके परिजनों पर सैकड़ों राउंड गोलियां दागी गईं। गोलियों की तड़तड़ाहट ने बाजार को चीख-पुकार से भर दिया। कुछ ही पलों में डाला की धरती खून से लाल हो गई। इस गोलीकांड में नौ लोग शहीद हो गए, जिनमें एक मासूम छात्र भी शामिल था। सैकड़ों लोग घायल हुए, जिनमें से कई महीनों तक अस्पतालों में जीवन और मृत्यु के बीच जूझते रहे। इस घटना ने न केवल डाला, बल्कि पूरे देश में आक्रोश की लहर दौड़ा दी।

सत्ता का पतन और कर्मचारियों की अनसुनी पुकार
इस गोलीकांड का राजनीतिक प्रभाव इतना गहरा था कि मुलायम सिंह यादव की सरकार को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। 1991 के विधानसभा चुनाव में ‘राम लहर’ और ध्रुवीकरण के माहौल में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने पूर्ण बहुमत हासिल किया और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। नई सरकार ने जनहित में सीमेंट फैक्ट्री के निजीकरण के सौदे को रद्द कर दिया और इसे सार्वजनिक क्षेत्र में चलाने का निर्णय लिया। हालांकि, यह जीत कर्मचारियों के लिए केवल अस्थायी राहत थी।

1999 में, उच्च न्यायालय के आदेश पर डाला, चुर्क और चुनार की सीमेंट फैक्ट्रियां बंद कर दी गईं। 31 जुलाई 2001 को शासकीय समापक अधिकारी ने इन कारखानों को हैंडओवर कर लिया। उस समय डाला में लगभग 2800 कर्मचारी कार्यरत थे, और कुल मिलाकर इन कारखानों में 5000 से अधिक कर्मचारी थे। फैक्ट्री बंद होने के बाद सभी कर्मचारियों की सेवाएं समाप्त कर दी गईं, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई। कई कर्मचारियों की दवाओं के अभाव में मृत्यु हो गई।
उच्चतम न्यायालय के आदेश के तहत, 812 कर्मचारियों को वेतन, पेंशन, और शेष कार्यावधि के लाभ मिले और उन्हें विभिन्न सरकारी विभागों में समायोजित किया गया। लेकिन यह सुविधा केवल उन कर्मचारियों तक सीमित रही जिन्होंने न्यायालय में वाद दाखिल किया था। डाला, चुर्क और चुनार के हजारों अन्य कर्मचारी खासकर डाला के 2000 से अधिक कर्मचारी, गरीबी और अनभिज्ञता के कारण इन सुविधाओं से वंचित रह गए।
आज भी जिंदा है शहीदों की याद
हर साल 2 जून को पंडित ओम प्रकाश तिवारी के नेतृत्व में डाला के स्थानीय लोग शहीद दिवस मनाते हैं, जिसमें शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है। यह दिन न केवल उन नौ लोगों की शहादत को याद करता है, बल्कि उन हजारों कर्मचारियों की अनसुनी पुकार को भी उजागर करता है, जो आज भी न्याय की प्रतीक्षा में हैं। डाला गोलीकांड उत्तर प्रदेश की सियासत में एक काले धब्बे के रूप में दर्ज है, जो मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक इतिहास को भी प्रभावित करता है।


34 साल बाद भी डाला गोलीकांड के जख्म ताजा हैं। शहीदों के परिवार और बचे हुए कर्मचारी आज भी न्याय की उम्मीद में हैं। उच्चतम न्यायालय के आदेश ने कुछ राहत दी, लेकिन हजारों कर्मचारी अभी भी अपने हक से वंचित हैं। यह घटना हमें याद दिलाती है कि सत्ता के फैसले कितने दूरगामी और विनाशकारी हो सकते हैं। क्या डाला के बचे हुए कर्मचारियों को कभी उनका हक मिलेगा? यह सवाल आज भी अनुत्तरित है।

राणा अंशुमान सिंह यूनिफाइड भारत के एक उत्साही पत्रकार हैं, जो निष्पक्ष और प्रभावी ख़बरों के सन्दर्भ में जाने जाना पसंद करते हैं। वह सामाजिक मुद्दों, धार्मिक पर्यटन, पर्यावरण, महिलाओं के अधिकारों और राजनीति पर गहन शोध करना पसंद करते हैं। पत्रकारिता के साथ-साथ हिंदी-उर्दू में कविताएँ और ग़ज़लें लिखने के शौकीन राणा भारतीय संस्कृति और सामाजिक बदलाव के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।